कील उखाड़ने वाला वानर - Nail picker apes
किसी वैश्य ने अपने नगर के समीप के वन में एक देवमन्दिर बनवाना आरम्भ किया। उस मन्दिर के निर्माण-कार्य में लगे श्रमिक मध्याह्न का भोजन करने के लिए नगर में चले जाया करते थे। इस प्रकार एक दिन जब सब श्रमिक भोजन करने के लिए नगर में गये हुए थे तो उसी समय वानरों का एक झुण्ड उधर से आ निकला। उन दिनों वहां लकड़ी चिराई का कार्य भी हो रहा था। अर्जुन का बहुत बड़ा वृक्ष काटकर उसे चीरा जा रहा था। चीरने वाले ने भोजन के समय अपने काम को रोका तो उसने अधचिरी लकड़ी के बीच में लकड़ी की एक मोटी कील ठोक दी जिससे कि भोजन के उपरान्त आकर वह उससे सरलता से अपनी आरी को डाल सके। वानर का स्वभाव ही उत्पाती होता है। एक वानर आकर उस अधिचिरी लकड़ी पर बैठ गया। जहां पर कील ठुकी थी वहां पर जब बन्दर बैठा तो उस चिरी लकड़ी के दो पाटों के बीच में उसके अण्डकोष लटक गए। बन्दर बैठा-बैठा उस लकड़ी की कील को उखाड़ने लगा। जोर लगाने पर वह कील तो उखड़ गई किन्तु वानर चीख उठा। उसके अण्डकोष दब गए थे। वानर के बचने का कोई उपाय नहीं था। वह वहीं पर समाप्त हो गया। करटक कहने लगा, ‘‘इसलिए मैं कहता हूँ जो व्यर्थ का कार्य करता है। उसकी दशा वानर जैसी होती है। राजा के बचे हुए भोजन में से हमको भोजन मिल जाता है तब हमें व्यर्थ के प्रपंच में पड़ने की क्या आवश्यकता ?’’ दमनक बोला, ‘‘लगता है, तुम केवल भोजन के लिए ही जीते हो। बुद्धिमान जन मित्रों के उपकार और शत्रु के अपकार के लिए राजा का आश्रय ग्रहण करते हैं। पेट तो सभी भर लेते हैं। जो दूसरों के लिए जीता है उसी का जीवन सफल है। जिसने कभी कोई महत्त्वपूर्ण कार्य नहीं किया, उसने तो जन्म लेकर केवल अपनी माता के यौवन को ही विनष्ट किया है। नदी तट पर उगे तृण का भी जन्म सफल है जिसका आश्रय ग्रहण कर नदी में डूबता व्यक्ति तट पर आ जाता है। काष्ठ के भीतर छिपी अग्नि का लोग उल्लंघन कर जाते हैं किन्तु प्रज्वलित अग्नि का उल्लंघन करने का साहस किसी को नहीं होता।’’ दमनक का उपदेश सुनकर करटक फिर बोला, ‘‘जब हम दोनों को ही राजा ने पदच्युत कर दिया है तो हमें राजा के विषय में जानने की चेष्टा करने से क्या लाभ ? इससे तो हम अपमानित होंगे और उपहास के पात्र बनेंगे। मनुष्य को अपनी वाणी का प्रयोग उसी स्थान पर करना चाहिए जहां उसके प्रयोग से कुछ लाभ होता हो। जिस प्राकार श्वेत वस्त्र पर ही रंग उभरता है उसी प्रकार उचित स्थान पर प्रयुक्त वाणी ही सार्थक होती है।’’ यह सुन दमनक बोला, ‘‘नहीं, ऐसी बात नहीं है। राजा की सेवा में तत्पर रहने वाला अप्रधान व्यक्ति भी प्रधान बन जाया करता है। कहते हैं कि जो व्यक्ति सन्निकट होता है राजा उसी से प्रेम करता है, भले ही वह मूर्ख क्यों न हो। स्त्रियों और लताओं की भाँति राजा भी अपने निकटस्थ व्यक्ति से ही प्रेम किया करते हैं। जो राजसेवक राजा के समीप रहता है वह राजा के कुपित तथा प्रसन्न होने के कारण को जान लेता है और तदनुरूप कार्य करने पर वह पुनः राजा का प्रिय पात्र बनने में सफल हो जाता है। जो उत्साही और अध्यवसायी व्यक्ति है वह क्या नहीं कर सकता। ऐसे लोग विषधर सर्प, हिंसक व्याघ्र और सिंह आदि को भी वशीभूत कर लिया करते हैं। राजा को वश में कर लेने पर हम सब कुछ प्राप्त कर सकते हैं।’’ करटक ने पूछा, ‘‘तो आप क्या करना चाहते हैं ?’’ ‘‘हमारा स्वामी पिंगलक भयभीत है। उसके साथ रहने वाले भी सन्त्रस्त हैं। मैं उनके समीप जाकर उसके भयग्रस्त होने का कारण जानना चाहता हूं। कारण जान लेने पर ही सन्धि, विग्रह, यान आसन, संश्रय और द्वैधी भावों में से किसी भी एक का अवलम्बन प्राप्त कर अपना कार्य सिद्ध करने का यत्न करूंगा।’’ ‘‘आप यह कैसे कह सकते हैं कि हमारा स्वामी भयभीत है ?’’ ‘‘अरे ! इसमे जानने को है ही क्या ? कथिक अर्थ को तो पशु भी समझ लेते हैं। इंगित के आश्रय ही हाथी, घोड़े आदि अपने सवार को यथास्थान ले जाते हैं। बुद्धिमान तो वह है जो अकथिक अर्थ को भी समझ जाए। यह स्पष्ट है कि पिंगलक भयभीत है। मैं उसके समीप जाकर उसके भय का कारण जानना चाहूंगा। फिर अपनी बुद्धि से उसको निर्भय करने का यत्न करूंगा, और इस प्रकार मैं अपना खोया मन्त्रित्व पुनः प्राप्त करूंगा।’’ करटक बोला, ‘‘सेवा क्या होती है, यह तो आप जानते ही नहीं, फिर आप किस प्रकार उसको अनुकूल करेंगे ?’’ ‘‘अरे यह तुम क्या कहते हो। मैं पिता के साथ रहता हुआ समागत विद्वानों के मुख से सब प्रकार के नीतिशास्त्र सुन और समझ चुका हूं। उस सबका मूल यही है कि अपनी सेवा से राजा को प्रसन्न कर दो। बस फिर सब कुछ आपका है।’’ इस प्रकार दमनक ने सेवा के अनेक प्रकार करटक को बताए। उसने बताया कि राजा की सेवा में रहते हुए दूत को यमदूत और हाला को हलाहल समझना चाहिए। युद्घ के समय राजा के आगे रहना चाहिए और नगर यात्रा में सदा उसके पीछे रहना चाहिए। ऐसा ही व्यक्ति राजा को प्रिय होता है। करटक ने पूछा, ‘‘आप वहां जाकर पहले क्या करेंगे, जरा बताइए तो ?’’ दमनक बोला, ‘‘इस विषय में पहले से वाक्यों का निर्धारण करना कठिन है, वहां की परिस्थिति देखकर मेरी बुद्धि स्वयं ही अपना मार्ग बना लेगी।’’ करटक कहने लगा, ‘‘जिस प्रकार भीषण पाषाण, हिंसक सिह, व्याघ्र और विषधर सर्षों आदि से घिरे रहने के कारण पर्वत दुरारोह होते हैं उसी प्रकार शठों, धूर्तों और दुष्टों से घिरे रहने के कारण राजा भी सरलता से प्रसन्न नहीं किए जा सकते। राजा भी कुटिल सर्पों की ही भाँति होते हैं जो केवल मन्त्रों द्वारा ही साधे जा सकते हैं। उनके समान ही वे दुमुंहे होते हैं।’’ इस प्रकार जब करटक ने अपनी बुद्धि के अनुसार अनेक उदाहरण देकर समझाया तो दमनक कहने लगा, ‘‘यह तो तुम ठीक ही कहते हो। किन्तु जिस व्यक्ति का जैसा स्वभाव होता है उसको उसी प्रकार के आचरण से वशीभूत भी किया जा सकता है। बस हमें तो स्वामी को उसके मनोनुकूल आचरण से प्रभावित करना होगा। राजा तो राजा, अनुकूल आचरण करने से तो राक्षस भी वश में हो जाया करते हैं।’’ दमनक की बात सुनकर करटक बोला, ‘‘यदि आप ही चाहते हैं तो जाइए ईश्वर आपकी सहायता करेगा। बस वहां जाकर सतत् सावधान रहिएगा क्योंकि आपके भाग्य पर ही हमारा भाग्य भी निर्भर करता है।’’ करटक से स्वीकृति मिलने पर दमनक उससे विदा लेकर पिंगलक की ओर चल दिया। पिंगलक ने जब दमनक को आते देखा तो विपत्ति में पड़ा होने के कारण उसने द्वारपाल को निर्देश दिया कि वह उसे रोके नहीं, आने दे। इस प्रकार जब दमनक आया तो उसको भीतर पहुंचने में किसी प्रकार की बाधा नहीं हुई। राजा के समीप पहुँचकर उसने यथाविधि प्रमाण किया और राजा के संकेत पर यथास्थान बैठे गया। उसके बैठ जाने पर राजा ने पूछा, ‘‘कुशल तो है, आज बहुत दिनों के बाद दिखाई दिए हो। किधर से आ रहे हो ?’’ दमनक ने नम्रता से कहा, ‘‘मैं किसी विशेष प्रयोजन से सेवा में उपस्थित हुआ हूं। व्यक्ति चाहे कैसा ही उत्तम, मध्यम अथवा निम्न कोटि का हो, राजा का तो सभी से प्रयोजन पड़ता है जैसे दांतो में अटकी हुई वस्तु निकालने के लिए तलवार की नहीं तिनके की आवश्यकता होती है। फिर मैं तो मनुष्य हूँ। यद्यपि दुर्भाग्य से हमारा अधिकार छिन गया है तदपि हैं तो हम वंशक्रम से आपके अनुगत ही। जो स्वामी सेवकों के गुणों को नहीं पहचानता अथवा जान–बूझकर उनकी अवहेलना करता है, अवसर मिलने पर उस स्वामी को सेवक छोड़ दिया करते हैं।’’ ‘‘सोने में जड़ने योग्य मणि को यदि रांगे में जड़ दिया जाए तो मणि किसी प्रकार की आपत्ति नहीं करेगी किन्तु उसकी सोभा समाप्त हो जाती है। जिस राजा के यहाँ योग्य और आयोग्य व्यक्ति की पहचान न हो उस राजा के आश्रय में रहना हानिकर हो सकता है। जो राजा कांच को मणि और मणि को कांच समझता हो उसके आश्रय में कभी कोई योग्य सेवक स्थिर नहीं रह सकता। राजा अपने सेवक पर अत्यधिक प्रसन्न होने पर भी केवल धन को प्रदान करता है किन्तु सेवक तो राजा के लिए अपने प्राणों तक की आहुति देने को तत्पर रहता है। गुणी व्यक्ति अपने गुणों के विकास से ही प्रसिद्धि को प्राप्त करता है। राजन् ! मैं अपका भक्त हूं और शक्तिमान भी हूं। अतः आपको मुझे सेवा का अवसर अवश्य ही प्रदान करना चाहिए।’’ पिंगलक कहने लगा, ‘‘यह सब जो कुछ तुमने कहा है वह सब ठीक है। तुम तो वैसे भी मेरे मन्त्री के पुत्र हो। अतः तुम यदि कुछ कहना चाहते हो तो निर्भय होकर कहो।’’ मन-ही-मन प्रसन्न होता हुआ दमनक बोला, ‘‘देव ! मुझे एक आवश्यक निवेदन कराना है।’’ ‘‘ठीक है, बोलो।’’ ‘‘महाराज ! आचार्य बृहस्पति ने कहा है कि राजा का कोई छोटे-से-छोटा कार्य भी हो तो उसे जनसमुदाय में नहीं कहना चाहिए। अतः मेरी बात को आप एकान्त में सुने तो अधिक उपयुक्त होगा।’’ पिंगलक ने अपने पार्षदों की ओर दृष्टि की तो सब वहां से एक ओर को खिसक गए। उनके चले जाने पर दमनक राजा के समीप गया और धीरे से पूछने लगा, ‘‘आप जल पीने के लिए आए थे, किन्तु बिना पिपासा शान्त किए ही यहां आकर किस प्रकार बैठ गए हैं ?’’ पिंगलक ने अपने भय को छिपाते हुए कहा, ‘‘कोई विशेष बात नहीं है, बस यों ही विश्राम करने के लिए हम लोग बैठ गए हैं।’’ ‘‘ठीक है कोई गोपनीय बात नहीं तो रहने दीजिए। क्योंकि शास्त्र में कहा गया है कि कुछ बाते ऐसी होती है जिन्हें अपनी पत्नी से भी गुप्त रखना पड़ता है।
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