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वात रोग (Rheumatism)



वात रोग (Rheumatism)


परिचय:-

वात, पित्त और कफ तीनों में से वात सबसे प्रमुख होता है क्योंकि पित्त और कफ भी वात के साथ सक्रिय होते हैं। शरीर में वायु का प्रमुख स्थान पक्वाशय में होता है और वायु का शरीर में फैल जाना ही वात रोग कहलाता है। हमारे शरीर में वात रोग 5 भागों में हो सकता है जो 5 नामों से जाना जाता है।
वात के पांच भाग निम्नलिखित हैं-

उदान वायु        - यह कण्ठ में होती है।
अपान वायु       - यह बड़ी आंत से मलाशय तक होती है।
प्राण वायु         -  यह हृदय या इससे ऊपरी भाग में होती है।
व्यान वायु        - यह पूरे शरीर में होती है।
समान वायु       - यह आमाशय और बड़ी आंत में होती है।
वात रोग के प्रकार :-

आमवात:-

    आमवात के रोग में रोगी को बुखार होना शुरू हो जाता है तथा इसके साथ-साथ उसके जोड़ों में दर्द तथा सूजन भी हो जाती है। इस रोग से पीड़ित रोगियों की हडि्डयों के जोड़ों में पानी भर जाता है। जब रोगी व्यक्ति सुबह के समय में उठता है तो उसके हाथ-पैरों में अकड़न महसूस होती है और जोड़ों में तेज दर्द होने लगता है। जोड़ों के टेढ़े-मेढ़े होने से रोगी के शरीर के अंगों की आकृति बिगड़ जाती है।

सन्धिवात:-

         जब आंतों में दूषित द्रव्य जमा हो जाता है तो शरीर की हडि्डयों के जोड़ों में दर्द तथा अकड़न होने लगती है।

गाउट:-

          गाउट रोग बहुत अधिक कष्टदायक होता है। यह रोग रक्त के यूरिक एसिड में वृद्धि होकर जोड़ों में जमा होने के कारण होता है। शरीर में यूरिया प्रोटीन से उत्पन्न होता है, लेकिन किसी कारण से जब यूरिया शरीर के अंदर जल नहीं पाता है तो वह जोड़ों में जमा होने लगता है और बाद में यह पथरी रोग का कारण बन जाता है।

मांसपेशियों में दर्द:-

         इस रोग के कारण रोगी की गर्दन, कमर, आंख के पास की मांस-पेशियां, हृदय, बगल तथा शरीर के अन्य भागों की मांसपेशियां प्रभावित होती हैं जिसके कारण रोगी के शरीर के इन भागों में दर्द होने लगता है। जब इन भागों को दबाया जाता है तो इन भागों में तेज दर्द होने लगता है।

गठिया:-

        इस रोग के कारण हडि्डयों को जोड़ने वाली तथा जोड़ों को ढकने वाली लचीली हडि्डयां घिस जाती हैं तथा हडि्डयों के पास से ही एक नई हड्डी निकलनी शुरू हो जाती है। जांघों और घुटनों के जोड़ों पर इस रोग का बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है और जिसके कारण इन भागों में बहुत तेज दर्द होता है।

वात रोग के लक्षण:-

वात रोग से पीड़ित रोगी के शरीर में खुश्की तथा रूखापन होने लगता है।
वात रोग से पीड़ित रोगी के शरीर की त्वचा का रंग मैला सा होने लगता है।
रोगी व्यक्ति को अपने शरीर में जकड़न तथा दर्द महसूस होता है।
वात रोग से पीड़ित रोगी के सिर में भारीपन होने लगता है तथा उसके सिर में दर्द होने लगता है।
रोगी व्यक्ति का पेट फूलने लगता है तथा उसका पेट भारी-भारी सा लगने लगता है।
रोगी व्यक्ति के शरीर में दर्द रहता है।
वात रोग से पीड़ित रोगी के जोड़ों में दर्द होने लगता है।
रोगी व्यक्ति का मुंह सूखने लगता है।
वात रोग से पीड़ित रोगी को डकारें या हिचकी आने लगती है।
वात रोग होने का कारण :-

वात रोग होने का सबसे प्रमुख कारण पक्वाशय, आमाशय तथा मलाशय में वायु का भर जाना है।
भोजन करने के बाद भोजन के ठीक तरह से न पचने के कारण भी वात रोग हो सकता है।
जब अपच के कारण अजीर्ण रोग हो जाता है और अजीर्ण के कारण कब्ज होता है तथा इन सबके कारण गैस बनती है तो वात रोग पैदा हो जाता है।
पेट में गैस बनना वात रोग होने का कारण होता है।
जिन व्यक्तियों को अधिक कब्ज की शिकायत होती है उन व्यक्तियों को वात रोग अधिक होता है।
जिन व्यक्तियों के खान-पान का तरीका गलत तथा सही समय पर नहीं होता है उन व्यक्तियों को वात रोग हो जाता है।
ठीक समय पर शौच तथा मूत्र त्याग न करने के कारण भी वात रोग हो सकता है।
वात रोग होने पर प्राकृतिक चिकित्सा से उपचार :-

वात रोग का प्राकृतिक चिकित्सा से उपचार करने के लिए सबसे पहले रोगी व्यक्ति को अपने हडि्डयों के जोड़ में रक्त के संचालन को बढ़ाना चाहिए। इसके लिए रोगी व्यक्ति को एक टब में गरम पानी लेकर उसमें आधा चम्मच नमक डाल लेना चाहिए। इसके बाद जब टब का पानी गुनगुना हो जाए तब रोगी को टब के पास एक कुर्सी लगाकर बैठ जाना चाहिए। इसके बाद रोगी व्यक्ति को अपने पैरों को गरम पानी के टब में डालना चाहिए और सिर पर एक तौलिये को पानी में गीला करके रखना चाहिए। रोगी व्यक्ति को अपनी गर्दन के चारों ओर कंबल लपेटना चाहिए। इस प्रकार से इलाज करते समय रोगी व्यक्ति को बीच-बीच में पानी पीना चाहिए तथा सिर पर ठंडा पानी डालना चाहिए। इस प्रकार से प्राकृतिक चिकित्सा से उपचार करने से रोगी को कम से कम 20 मिनट में ही शरीर से पसीना निकलने लगता है जिसके फलस्वरूप दूषित द्रव्य शरीर से बाहर निकल जाते हैं और वात रोग ठीक होने लगता है।
वात रोग से पीड़ित रोगी का उपचार करने के लिए 2 बर्तन लें। एक बर्तन में ठंडा पानी लें तथा दूसरे में गरम पानी लें और दोनों में 1-1 तौलिया डाल दें। 5 मिनट बाद तौलिये को निचोड़कर गर्म सिंकाई करें। इसके बाद ठंडे तौलिये से सिंकाई करें। इस उपचार क्रिया को कम से कम रोजाना 3 बार दोहराने से यह रोग ठीक होने लगता है।
वात रोग से पीड़ित रोगी का उपचार करने के लिए रोगी व्यक्ति को लगभग 4 दिनों तक फलों का रस (मौसमी, अंगूर, संतरा, नीबू) पीना चाहिए। इसके साथ-साथ रोगी को दिन में कम से कम 4 बार 1 चम्मच शहद चाटना चाहिए। इसके बाद रोगी को कुछ दिनों तक फलों को खाना चाहिए।
कैल्शियम तथा फास्फोरस की कमी के कारण रोगी की हडि्डयां कमजोर हो जाती हैं इसलिए रोगी को भोजन में पालक, दूध, टमाटर तथा गाजर का अधिक उपयोग करना चाहिए।
कच्चा लहसुन वात रोग को ठीक करने में रामबाण औषधि का काम करती है इसलिए वात रोग से पीड़ित रोगी को प्रतिदिन कच्चे लहसुन की 4-5 कलियां खानी चाहिए।
वात रोग से पीड़ित रोगी का उपचार करने के लिए रोगी व्यक्ति को भोजन में प्रतिदिन चोकर युक्त रोटी, अंकुरित हरे मूंग तथा सलाद का अधिक उपयोग करना चाहिए।
रोगी व्यक्ति को प्रतिदिन कम से कम आधा चम्मच मेथीदाना तथा थोड़ी सी अजवायन का सेवन करना चाहिए। इनका सेवन करने से यह रोग जल्दी ही ठीक हो जाता है।
वात रोग से पीड़ित रोगी का उपचार करने के लिए रोगी को प्रतिदिन सुबह तथा शाम के समय में खुली हवा में गहरी सांस लेनी चाहिए। इससे रोगी को अधिक आक्सीजन मिलती है और उसका रोग ठीक होने लगता है।
शरीर पर प्रतिदिन तिल के तेलों से मालिश करने से वात रोग ठीक होने लगता है।
रोगी व्यक्ति को प्रतिदिन सुबह के समय में धूप में बैठकर शरीर की मालिश करनी चाहिए। धूप वात रोग से पीड़ित रोगियों के लिए बहुत ही लाभदायक होती है।
वात रोग से पीड़ित रोगी का उपचार करने के लिए तिल के तेल में कम से कम 4-5 लहसुन तथा थोड़ी सी अजवाइन डालकर गर्म करना चाहिए तथा इसके बाद इसे ठंडा करके छान लेना चाहिए। फिर इसके बाद इस तेल से प्रतिदिन हडि्डयों के जोड़ पर मालिश करें। इससे वात रोग जल्दी ही ठीक हो जायेगा।
वात रोग (जिसे पोडाग्रा के रूप में भी जाना जाता है जब इसमें पैर का अंगूठा शामिल हो) एक चिकित्सिकीय स्थिति है आमतौर पर तीव्र प्रदाहक गठिया—लाल, संवेदनशील, गर्म, सूजे हुए जोड़ के आवर्तक हमलों के द्वारा पहचाना जाता है। पैर के अंगूठे के आधार पर टखने और अंगूठे के बीच का जोड़ सबसे ज़्यादा प्रभावित होता है (लगभग 50% मामलों में)। लेकिन, यह टोफी, गुर्दे की पथरी, या यूरेट अपवृक्कता में भी मौजूद हो सकता है। यह खून में यूरिक एसिड के ऊंचे स्तर के कारण होता है। यूरिक एसिड क्रिस्टलीकृत हो जाता है और क्रिस्टल जोड़ों, स्नायुओं और आस-पास के ऊतकों में जमा हो जाता है।

चिकित्सीय निदान की पुष्टि संयुक्त द्रव में विशेष क्रिस्टलों को देखकर की जाती है। स्टेरॉयड-रहित सूजन-रोधी दवाइयों (NSAIDs), स्टेरॉयड या कॉलचिसिन लक्षणों में सुधार करते हैं। तीव्र हमले के थम जाने पर, आमतौर पर यूरिक एसिड के स्तरों को जीवन शैली में परिवर्तन के माध्यम से कम किया जाता है और जिन लोगों में लगातार हमले होते हैं उनमें, एलोप्यूरिनॉल या प्रोबेनेसिड दीर्घकालिक रोकथाम प्रदान करते हैं।

हाल के दशकों में वात रोक की आवृत्ति में वृद्धि हुई है और यह लगभग 1-2% पश्चिमी आबादी को उनके जीवन के किसी न किसी बिंदु पर प्रभावित करता है। माना जाता है कि यह वृद्धि जनसंख्या बढ़ते हुए जोखिम के कारकों की वजह से है, जैसे कि चपापचयी सिंड्रोम, अधिक लंबे जीवन की प्रत्याशा और आहार में परिवर्तन। ऐतिहासिक रूप से वात रोग को "राजाओं की बीमारी" या "अमीर आदमी की बीमारी" के रूप में जाना जाता था।

कारण

हाइपरयूरीसेमिया, वात रोग का मूल कारण होता है। यह कई कारणों से हो सकता है, जिनमें आहार, आनुवंशिक गड़बड़ी, या यूरेट, यूरिक एसिड के लवणों का कम उत्सर्जन शामिल हैं। लगभग 90% मामलों में हाइपरयूरीसेमिया का मुख्य कारण गुर्दों में यूरिक एसिड का कम उत्सर्जन होता है, जब कि ज़रुरत से अधिक उत्पादन 10% के कम मामलों में कारण होता है। हाइपरयूरीसेमिया वाले लगभग 10% लोगों में उनके जीवन काल में किसी न किसी बिंदु पर वात रोग विकसित हो जाता है। लेकिन, हाइपरयूरीसेमिया के स्तर के आधार पर, जोखिम अलग-अलग हो सकता है। जब स्तर 415 और 530 माइक्रोमोल/लीटर (7 और 8.9 मिलीग्राम/डेसीलीटर) के बीच हों, तो जोखिम 0.5% प्रति वर्ष होता है, जब कि 535 माइक्रोमोल/लीटर (9 मिलीग्राम/डेसीलीटर) से ऊपर के स्तरों वाले लोगों में यह जोखिम 4.5% प्रति वर्ष होता है।

दवाएं

मूत्रवर्धक दवाएं को वात रोग के दौरों के साथ जोड़ा गया है। लेकिन, हाइड्रोक्लोरोथियाजिड की निम्न खुराक जोखिम को बढ़ाती हुई प्रतीत नहीं होती है। अन्य अन्य संबंधित दवाओं में नियासिन और एस्पिरिन(एसिटाइलसैलिसिलिक एसिड) शामिल हैं। प्रतिरक्षा दमनकारी दवाएं सिसलोस्पोरिन और टैक्रोलिमस भी वात रोग के साथ जुड़ी हुई हैं,विशेष रूप से सिसलोस्पोरिन, जब इन्हें हाइड्रोक्लोरोथियाजिड के साथ संयोजन में उपयोग किया जाता है।
पैथोफिज़ियोलॉजी (रोग के कारण पैदा हुए क्रियात्मक परिवर्तन)
कार्बनिक यौगिक की संरचना: 7,9-डाइहाइड्रो-1H-प्यूरीन-2,6,8(3H)-ट्रायोन
यूरिक एसिड

वात रोग प्यूरीन चयापचय का एक विकार है, और उस समय होता है जब इसका अंतिम मेटाबोलाइट, यूरिक एसिड, मोनोसोडियम यूरेट के रूप में क्रिस्टलीकृत हो कर जोड़ों में, स्नायुओं पर और आसपास के ऊतकों में नीचे बैठ जाता है। उसके बाद यह क्रिस्टल एक स्थानीय प्रतिरक्षा-की मध्यस्थता वाली सूजन वाली प्रतिक्रिया शुरू करता है, जिसमें सूजन प्रवाह के मुख्य प्रोटीनों में से एक इंटरल्यूकिन 1β होता है। मनुष्यों में विकास के साथ-साथ यूरीकेस, जो कि यूरिक एसिड को तोड़ता है और प्राइमेट्स की कमी ने इस समस्या को आम बना दिया है।

इस बात को अच्छी तरह से समझा नहीं गया है कि क्या चीज़ यूरिक एसिड का अवक्षेपण शुरू करती है। जब कि यह सामान्य स्तरों पर क्रिस्टलों में परिवर्तित हो सकता है, स्तरों के बढ़ने पर ऐसा होने की अधिक संभावना होती है। गठिया का एक तीव्र प्रकरण शुरू करने में महत्वपूर्ण माने जाते अन्य कारकों में ठंडे तापमान, यूरिक एसिड के स्तरों में तेजी से बदलाव, एसिडोसिस, जोड़ जलयोजन और बाह्य मैट्रिक्स प्रोटीन, जैसे कि प्रोटियोग्लाईकैन्स, कोलेजन औरचोन्ड्रोयटिन सल्फेट शामिल है। कम तापमानों पर क्रिस्टलों के अवक्षेपण की बढ़ी हुई क्रिया आंशिक रूप से इस बात की व्याख्या करती है कि पैरों के जोड़ सबसे अधिक क्यों प्रभावित होते हैं। यूरिक एसिड में तेजी से बदलाव, कई कारणों से हो सकते हैं जिनमे आघात, शल्य चिकित्सा, कीमोथेरेपी, मूत्रवर्धक दवाइयां और एलोप्यूरिनॉल को रोकना या शुरू करना शामिल हैं। उच्च रक्तचाप के लिए अन्य दवाओं की तुलना में कैल्शियम चैनल ब्लॉकर्स और लोसार्टन को वात रोग के कम जोखिम के साथ जोड़ा जाता है।

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