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गोक्षुर (ट्रकइबुलस टेरेस्टि्रस) - Gokshura (Trachebulus terrestris)

 



गोक्षुर (ट्रकइबुलस टेरेस्टि्रस)


जंगल में पायी जाने वाली सामान्य औषधि के छुरी के समान तेज काँटे गौ आदि पशुओं के पैरों में चुभकर उन्हें क्षत कर देते हैं । इसी कारण उन्हें 'गौक्षर' कहा जाता है । इसे श्वदंष्ट्रा, चणद्रुम, स्वादु कण्टक एवं गोखरु नाम से भी जाना जाता है । यह एक सरलता से उपलब्ध होने वाला घास जैसा जमीन पर फैलने वाला क्षुप है, जो वर्षा के प्रारंभ में ही जंगल में चारों ओर उग आता है । पूरे वर्ष इसमें फूल व फल आते हैं । बहुत से व्यक्ति इसे मसाले के रूप में भी प्रयुक्त करते हैं तथा अन्न के अभाव में इसके फलों को पीसकर रोटी बनाकर भी खाते हैं ।

वानस्पतिक परिचय-

इसकी शाखाएँ 2 से 3 फुट लंबी चारों ओर फैली होती है । पत्ते चने के समान होते हैं, किंतु उनसे कुछ बड़े 5 से 7 सेण्टीमीटर लंबे एक स्थान पर आमने-सामने दो स्थिति होते हैं । प्रत्येक पत्ती में चार से लेकर सात जोड़ों के पत्रक स्थित होते हैं । शाखाएँ बैंगनी रंग की चारों ओर फैली तथा श्वेत रोम व अनेकों ग्रंथि युक्त होती हैं । पुष्प पत्रकोण से निकले हुए पुष्प वृन्तों से छोटे-छोटे पीत वर्ण के चक्राकार शरद में आते हैं । ये काँटों युक्त होते हैं ।

फल, पुष्प लगने के बाद छोटे-छोटे गोल, चपटे, पंचकोणीय आकार में प्रकट होते हैं । इनमें 2 से लेकर 6 तक काँटे व अनेक बीज होते हैं । बीजों में हल्का सुगन्धित तेल होता है । जड़ मुलायम रेशेदार बेलनाकार 4 से 5 इंच लंबी, बाहर से हल्के भूरे रंग की होती है । इसमें भी एक विशिष्ट गंध आती है ।

शुद्धाशुद्ध परीक्षा संग्रह संरक्षण-

इस क्षुप में अन्य जंगली पौधों की जो आकार रूप में एक समान होते हैं, मिलावट होने से औषधीय क्षमता विवादास्पद होती है । ट्राइबुलस टेरेस्टि्रस को कई स्थानों पर मीठा गोखरु भी कहते हैं । इसे कड़वे या वृहत् गोखरु से पहचानना जरूरी है । जो समुद्र तटवर्ती प्रदेशों में पाया जाता है व नाम 'पिडेलियम म्यूरेन्स' है । इसके फल गोखरु से बड़े होते हैं । संस्कृत में इसे इक्षुगन्धिका (ईख के समान गंध वाला) भी कहते हैं । इसी प्रकार ऐसी ही गंध के एक अन्य पौधे हाइग्रोफिला स्पाइनोजा को भी इक्षुगन्धिका कहा गया है । परन्तु वह जहरीला है व गुण धर्म-कर्म में इससे बिल्कुल अलग है । इसे गोक्षुर से अलग पहचानना इसी कारण जरूरी है । इस दूसरे पौधे को जो बंगाल में ही अधिकतम पाया जाता है, काँटा यदि शरीर में गढ़ जाए तो शरीर का वह स्थान फूल जाता है व सारे शरीर में जलन होने लगती है । गोखरू के फल भी काँटेदार होते हैं, पर वे जहरीले नहीं होते । मूल व फल प्रयुक्त होते हैं । क्वाथादि के लिए पंचांग अथवा मूल का यथा संभव ताजी अवस्था में प्रयोग करना चाहिए । रूखी अवस्था में प्रयोग करना हो तो फल पक जाने पर पूरी वनस्पति खोदकर सुखाकर अनार्द्रशीतल स्थानों पर संग्रहीत करते हैं । पके फलों को सुखाकर बंद पात्रों में रखते हैं ।

वीर्य कालावधि-

मूल, फल व पंचांग का प्रभाव काल कुल एक वर्ष है । इसी अवधि में इसे उपयोग में ले लेना चाहिए ।

गुणकर्म संबंधी मत-

आचार्य चरक ने गोक्षुर को मूत्र विरेचन द्रव्यों में प्रधान मानते हुए लिखा है-गोक्षुर को मूत्रकृच्छानिलहराणाम् अर्थात् यह मूत्र कृच्छ (डिसयूरिया) विसर्जन के समय होने वाले कष्ट में उपयोगी एक महत्त्वपूर्ण औषधि है । आचार्य सुश्रुत ने लघुपंचकमूल, कण्टक पंचमूल गणों में गोखरू का उल्लेख किया है । अश्मरी भेदन (पथरी को तोड़ना, मूत्र मार्ग से ही बाहर निकाल देना) हेतु भी इसे उपयोगी माना है । श्री भाव मिश्र गोक्षुर को मूत्राशय का शोधन करने वाला, अश्मरी भेदक बताते हैं व लिखते हैं कि पेट के समस्त रोगों की गोखरू सर्वश्रेष्ठ दवा है । वनौषधि चन्द्रोदय के विद्वान् लेखक के अनुसार गोक्षरू मूत्र पिण्ड को उत्तेजना देता है, वेदना नाशक और बलदायक है ।

इसका सीधा असर मूत्रेन्द्रिय की श्लेष्म त्वचा पर पड़ता है । सुजाक रोग और वस्तिशोथ (पेल्विक इन्फ्लेमेशन) में भी गोखरू तुरंत अपना प्रभाव दिखाता है । गर्भाशय को शुद्ध करता है तथा वन्ध्यत्व को मिटाता है । इस प्रकार यह प्रजनन अंगों के लिए एक प्रकार की शोधक, बलवर्धक औषधि है । श्री नादकर्णी अपने ग्रंथ मटेरिया मेडिका में लिखते हैं-गोक्षुर का सारा पौधा ही मूत्रल शोथ निवारक है । इसके मूत्रल गुण का कारण इसमें प्रचुर मात्रा में विद्यमान नाइट्रेट और उत्त्पत तेल है । इसके काण्ड में कषाय कारक घटक होते हैं और ये मूत्र संस्थान की श्लेष्मा झिल्ली पर तीव्र प्रभाव डालते हैं ।

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